भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी की चिंताजनक हालत: क्या यह न्यू इंडिया की सबसे बड़ी विफलता है?

भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी आज भारत की सबसे गंभीर चुनौतियों में से एक बन चुकी है। एक ओर देश ‘विश्वगुरु’ बनने की बात करता है, वहीं दूसरी ओर शिक्षित युवा खुद को ठगा और असहाय महसूस कर रहे हैं। जिस शिक्षा को कभी विकास की सीढ़ी कहा जाता था, वही आज बेरोज़गारी और शोषण का माध्यम बनती जा रही है। संविदा पर आधारित नौकरियां युवाओं को आर्थिक रूप से अस्थिर बना रही हैं और मानसिक तथा सामाजिक स्तर पर उन्हें तोड़ रही हैं।

बेरोज़गारी के आंकड़े और वास्तविकता

भारत में हर साल लाखों छात्र स्नातक, परास्नातक और तकनीकी शिक्षा पूरी कर नौकरी की तलाश में निकलते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि नौकरी का बाजार लगातार सिमट रहा है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2024 में बेरोज़गारी दर 7.8 प्रतिशत रही, लेकिन ग्रामीण इलाकों और उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं में यह दर और भी अधिक है। भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी केवल आर्थिक समस्या नहीं रह गई है, यह सामाजिक उपेक्षा और मानसिक अवसाद का कारण बन रही है।

संविदा प्रणाली: आधुनिक युग की गुलामी

सरकारी विभागों में स्थायी नौकरियों की जगह अब संविदा कर्मियों की नियुक्ति बढ़ रही है। संविदा पर नौकरी करने वाले युवाओं के लिए न तो कोई नौकरी की गारंटी है और न ही भविष्य का भरोसा। उत्तर प्रदेश इसका बड़ा उदाहरण है। अनुदेशक वर्षों से काम कर रहे हैं लेकिन उनका मासिक वेतन केवल सात से नौ हजार रुपये के बीच है। शिक्षामित्र लंबे समय से शिक्षक जैसी जिम्मेदारियां निभा रहे हैं, लेकिन उन्हें केवल दस हजार रुपये मानदेय मिलता है और स्थायित्व की कोई उम्मीद नहीं।

क्या यह विकास का सही मॉडल है, जहां शिक्षक से पूरा काम लिया जाता है लेकिन उन्हें स्थायी कर्मचारी का दर्जा नहीं दिया जाता? यही कारण है कि भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी का संकट और गहरा हो रहा है।

शिक्षा और उम्मीदों का छलावा

आज के युवा कोचिंग, ट्यूशन और प्रतियोगी परीक्षाओं में सालों खपा देते हैं। वे अपने जीवन का सबसे अहम समय पढ़ाई में लगाते हैं। लेकिन जब परिणाम की बात आती है, तो कई बार या तो उनका नाम वेटिंग लिस्ट में अटक जाता है या फिर वे संविदा नौकरी के असुरक्षित चक्र में फंस जाते हैं। इस अस्थिरता का असर उनके विवाह, सामाजिक सम्मान और आत्मविश्वास पर पड़ता है।

राजनीतिक चुप्पी और जिम्मेदारी से बचाव

हर सरकार इस समस्या को पिछली सरकार की नीतियों पर डालकर अपनी जिम्मेदारी से बच निकलती है। चुनाव के समय बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं, घोषणाएं की जाती हैं, लेकिन जमीनी हकीकत नहीं बदलती। सवाल यह है कि अगर हर सरकार सिर्फ पूर्ववर्ती सरकारों को दोष देगी, तो भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी की जिम्मेदारी आखिर कौन लेगा?

तनाव में बैठा एक युवा कागज़ को देखते हुए — भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी और संविदा नौकरी की हकीकत को दर्शाता दृश्य

आत्महत्या की घटनाएं और टूटती उम्मीदें

कम वेतन, सामाजिक अपमान और भविष्य की अनिश्चितता ने कई संविदा कर्मियों को आत्महत्या के लिए मजबूर किया है। 2023 में प्रयागराज के एक अनुदेशक ने खुदकुशी कर ली और अपने आखिरी नोट में लिखा – “घर कैसे चलाऊं?” शिक्षामित्रों और अनुदेशकों के ऐसे कई दर्दनाक उदाहरण हैं जिनमें टूटे सपनों की करुण कहानी छिपी है।

समाधान की दिशा में जरूरी कदम

सरकार को स्पष्ट नीति बनानी चाहिए जिससे दस साल से अधिक सेवा कर रहे संविदा कर्मियों को स्थायी किया जा सके। मानदेय की समीक्षा आवश्यक है क्योंकि वर्तमान में नौ से दस हजार रुपये में जीवन यापन करना असंभव है। यह राशि कम से कम 30 से 35 हजार रुपये तक की जानी चाहिए। राजनीतिक इच्छाशक्ति भी अहम है क्योंकि जिस तरह वोटों के लिए नीतियां बदली जाती हैं, उसी तरह रोजगार और सेवा शर्तों में भी सुधार संभव है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को भी स्वतः संज्ञान लेकर संविदाकर्मियों के हक की रक्षा करनी चाहिए।

सामाजिक सोच में बदलाव की जरूरत

समाज को संविदा कर्मियों को ‘अस्थायी कर्मचारी’ की नजर से देखने के बजाय श्रमवीर की तरह सम्मान देना होगा। युवा सिर्फ आंकड़ा नहीं, बल्कि देश का भविष्य है। भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी तब तक खत्म नहीं होगी जब तक शिक्षा, रोजगार और सामाजिक मानसिकता तीनों में बदलाव नहीं आता।

कविता – सपनों की संविदा

पढ़-लिख कर हम बैठे हैं, हाथों में बस फॉर्म लिए
सरकारी वादे सुनते-सुनते, अरमान सारे थक से गए
हर महीने दो वक्त की रोटी भी अब सपना लगती है
संविदा में जीवन बीत रहा, पर नौकरी अब भी अजनबी सी लगती है

अनुदेशक हों या शिक्षामित्र, सबकी एक ही कहानी है
कभी अपमान, कभी कुंठा – यही रोज़ की रवानी है
शोषण सहते, चुप रहते, फिर भी उम्मीद जिंदा है
क्या कभी सुनेगा कोई, जो वाकई जिम्मेदार है

युवाओं के लिए उम्मीद की राह

अगर सच में भारत को ‘विकसित भारत’ बनाना है तो सबसे पहले शिक्षित युवाओं को स्थिर रोजगार और सम्मान देना होगा। यह केवल नौकरी देने का सवाल नहीं, बल्कि उम्मीद और भरोसा बनाए रखने का सवाल है। अगर यह भरोसा टूटा तो समाज और व्यवस्था दोनों खोखली हो जाएंगी।

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1️⃣ राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) बेरोज़गारी रिपोर्ट
👉 https://www.mospi.gov.in
(सरकारी बेरोज़गारी और रोजगार आंकड़ों का आधिकारिक स्रोत)

2️⃣ ILO (International Labour Organization) – Youth Employment Data
👉 https://www.ilo.org/global/topics/youth-employment/lang–en/index.htm
(वैश्विक स्तर पर युवाओं की बेरोज़गारी और कामकाज की रिपोर्ट)

3️⃣ PRS Legislative Research – Education & Employment Papers
👉 https://prsindia.org
(शिक्षा, रोजगार और सरकारी नीतियों पर शोध आधारित दस्तावेज़)

4️⃣ NITI Aayog Reports on Skill Development & Jobs
👉 https://www.niti.gov.in
(केंद्र सरकार के थिंक-टैंक की रिपोर्ट्स और सुझाव)

1 thought on “भारतीय युवाओं की बेरोज़गारी की चिंताजनक हालत: क्या यह न्यू इंडिया की सबसे बड़ी विफलता है?”

  1. “Unemployment isn’t just a lack of work—it’s a loss of dignity, direction, and hope. Solving it means more than creating jobs; it means restoring lives.”

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