जाति जनगणना को लेकर भारत में एक बार फिर बहस तेज़ हो गई है। यह बहस केवल आंकड़ों या गणना तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व और राजनीतिक स्वार्थ की त्रयी में उलझी हुई है। सवाल यह है — क्या जाति जनगणना वास्तव में वंचित वर्गों को न्याय दिलाने की दिशा में एक सशक्त कदम है, या यह केवल एक राजनीतिक औजार बनकर रह गई है जिससे वोट बैंक साधे जाते हैं? 2025 के परिप्रेक्ष्य में यह विषय और भी अधिक महत्वपूर्ण हो गया है, जब युवा वर्ग डिजिटल माध्यमों पर इसकी माँग कर रहा है और कई राज्य केंद्र के विरोध के बावजूद अपने स्तर पर जाति सर्वेक्षण करा चुके हैं।
भारत में आखिरी बार पूर्ण जाति जनगणना 1931 में हुई थी। तब से अब तक देश में सामाजिक ढांचा, जनसंख्या संरचना और आर्थिक विषमताएँ काफी बदल चुकी हैं। स्वतंत्र भारत में केवल अनुसूचित जाति और जनजाति की जनसंख्या को ही गिना जाता रहा है, जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की वास्तविक संख्या और स्थिति का कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं है।
मंडल आयोग (1980) की रिपोर्ट ने OBC की आबादी 52% बताई थी, लेकिन यह आंकड़ा भी अनुमान पर आधारित था। इस पृष्ठभूमि में जाति जनगणना की माँग केवल आँकड़ों की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह सामाजिक न्याय, प्रतिनिधित्व और संसाधनों के न्यायसंगत वितरण के लिए एक आवश्यक उपकरण है।
2025 की जाति जनगणना बहस
बिहार मॉडल – अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा या चेतावनी?
बिहार सरकार ने केंद्र की असहमति के बावजूद 2023-24 में राज्य स्तरीय जाति सर्वेक्षण कराया। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर OBC, EBC और दलित समुदाय अब भी गंभीर रूप से वंचित हैं। उदाहरण के लिए, बिहार सरकार की रिपोर्ट के अनुसार, सर्वे में सामने आया कि OBC और EBC वर्ग के परिवारों में 65% से अधिक परिवार 10वीं कक्षा से नीचे शिक्षित हैं।
इसके बाद महाराष्ट्र, ओडिशा और झारखंड जैसे राज्यों ने भी अपने-अपने स्तर पर जाति सर्वेक्षण की घोषणा की है। यह मॉडल अब राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन चुका है।
- दो पाई चार्ट दिखाते हैं — एक में EBC (36%) एवं OBC (27%) का संयुक्त आंकड़ा 63% और दूसरे में SC (19.65%), ST (1.68%) तथा सामान्य (15.52%) की प्रतिशत भागीदारी
- यह विवरण साफ़ तौर पर दर्शाता है कि पिछड़े वर्गों की हिस्सेदारी कितनी प्रबल है। studyiq.com+11deccanherald.com+11civilsdaily.com+11
- राज्य की कुल जनसंख्या (13.07 करोड़) का विभाजन दिखाने वाला पाई चार्ट
- EBC‑OBC जनसंख्या लगभग दो‑तिहाई (≈63%), SC करीब 20%, ST 1.68%, और सामान्य जनसंख्या 15.52% — भारतToday, TestBook व अन्य स्रोतों ने इसी आधार पर रिपोर्ट किया था livemint.com+4studyiq.com+4studyiq.com+4
- आय और रोजगार की स्थिति ग्राफ के रूप में प्रदर्शित — लगभग 34% परिवार ₹6,000/माह से कम कमा रहे थे, और सरकारी व निजी नौकरियों में सहभागिता बहुत कम थी
स्रोत: बिहार जाति सर्वे रिपोर्ट, 2023
केंद्र सरकार की चुप्पी और न्यायपालिका की भूमिका
केंद्र सरकार ने 2021 की जनगणना से जाति आधारित आँकड़े हटाने का फैसला किया, जिससे यह मुद्दा और भी संवेदनशील बन गया। सुप्रीम कोर्ट में इस विषय पर दायर याचिकाओं की सुनवाई के दौरान यह स्पष्ट किया गया कि जाति गणना करवाना एक नीति-निर्धारण का प्रश्न है और इसका निर्णय सरकार को लेना चाहिए। इस निर्णय ने विषय को राजनीतिक गलियारों तक सीमित कर दिया, जहाँ पक्ष और विपक्ष की सोच में गहरी खाई है।

Census 2027 के साथ जाति जनगणना, लेकिन NPR अपडेट क्यों नहीं?
भारत सरकार ने हाल ही में संकेत दिया है कि आगामी जनगणना 2027 में जाति आधारित डेटा संग्रह पर विचार किया जा रहा है। यह घोषणा सामाजिक न्याय के पक्ष में एक कदम के रूप में देखी जा रही है, लेकिन इससे एक नया सवाल भी खड़ा हो गया है — राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (NPR) के अपडेट को लेकर सरकार अब भी अनिच्छुक क्यों है?
NPR वह प्रणाली है जो नागरिकों की पहचान और निवास संबंधी जानकारी का रिकॉर्ड रखती है। यदि जाति आधारित आँकड़े जुटाने की तैयारी हो रही है, तो NPR जैसी प्रणाली को अपडेट करना और अधिक ज़रूरी हो जाता है ताकि डुप्लीकेशन, पहचान की गड़बड़ियाँ और सामाजिक योजनाओं में पारदर्शिता लाई जा सके।
विशेषज्ञों का मानना है कि NPR को अपडेट न करने के पीछे राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव हैं, क्योंकि NPR को नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और NRC से जोड़कर देखा गया था। सरकार शायद इस विवाद से बचना चाहती है। लेकिन सामाजिक शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि जातिगत संरचना को समझना है, तो NPR और Census दोनों का अपडेट अनिवार्य है।
युवा और डिजिटल चेतना: सोशल मीडिया पर जाति जनगणना की माँग
2025 में जाति जनगणना को लेकर सोशल मीडिया पर अभूतपूर्व जागरूकता देखी गई। हैशटैग्स जैसे #CasteCensusNow, #RightToRepresentation, और #JusticeThroughData ने लाखों युवाओं का ध्यान आकर्षित किया। छात्र संगठनों, सामाजिक संस्थाओं और डिजिटल पत्रकारों ने इसे जन आंदोलन का रूप दे दिया है।
उदाहरण के लिए, पटना विश्वविद्यालय और जेएनयू के छात्रों द्वारा चलाए गए डिजिटल अभियान में जाति जनगणना को “सच्चे लोकतंत्र की रीढ़” कहा गया।
“यदि गिनती नहीं होगी, तो हिस्सेदारी कैसे होगी?” — यह नारा अब डिजिटल भारत की आवाज़ बन चुका है।
राजनीति बनाम सामाजिक न्याय: कौन किसके साथ?
- विपक्षी दल: कांग्रेस, राजद, सपा, जद(यू), टीएमसी जैसे दल जाति जनगणना का खुलकर समर्थन कर रहे हैं। वे इसे सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व के अधिकार से जोड़कर देख रहे हैं।
- सत्तापक्ष (भाजपा): भाजपा ने इस मुद्दे पर संयमित रुख अपनाया है। कुछ भाजपा शासित राज्यों ने इसका विरोध किया, वहीं कुछ ने समर्थन। प्रधानमंत्री स्तर पर कोई स्पष्ट घोषणा नहीं हुई है।
- सामाजिक संगठन: बहुजन समाज, पिछड़ा वर्ग महासंघ, SC-ST छात्र संगठन इत्यादि इसे अपने अस्तित्व और हक की लड़ाई मानते हैं।
पारदर्शिता के उपाय और प्रमुख चुनौतियाँ
- डेटा का सुरक्षित और नैतिक उपयोग: जाति आधारित आँकड़ों का दुरुपयोग सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या सामाजिक विभाजन के लिए न हो, यह सुनिश्चित करना जरूरी है।
- निष्पक्ष एजेंसियाँ: राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त संस्थाओं द्वारा सर्वेक्षण किया जाए।
- डेटा का सार्वजनिक विश्लेषण: जनगणना के आँकड़ों को सार्वजनिक किया जाए ताकि नागरिक, विशेषज्ञ और नीति निर्माता मिलकर उनके आधार पर योजनाएँ बना सकें।
- तकनीकी पारदर्शिता: AI आधारित डेटा एनालिसिस और सुरक्षित डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से भरोसेमंद निष्कर्ष निकाले जाएं।
असमानता के उदाहरण और यथार्थ चित्रण
- शिक्षा में अंतर: 2023 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, IIT और IIM जैसे संस्थानों में OBC वर्ग का प्रतिनिधित्व अब भी कुल सीटों के अनुपात में काफी कम है।
- नौकरियों में विषमता: UPSC 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, कुल चयनित उम्मीदवारों में मात्र 23% OBC वर्ग से थे, जबकि उनकी अनुमानित जनसंख्या हिस्सेदारी 45-52% के बीच है।
- महिला और जाति की दोहरी मार: OBC और SC/ST महिलाओं की साक्षरता दर और रोजगार भागीदारी देश की औसत से बहुत नीचे है।
निष्कर्ष: अब या कभी नहीं?
जाति जनगणना अब केवल आँकड़ों की मांग नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की साख का सवाल बन चुकी है। यदि हम समाज की असमानता को मापना और मिटाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें उसे देखना और समझना पड़ेगा। जाति आधारित आँकड़े केवल सामाजिक वैज्ञानिकों या राजनेताओं के लिए नहीं, बल्कि उस हर नागरिक के लिए जरूरी हैं जो न्याय और समानता में विश्वास करता है।
“जो गिने नहीं जाते, वे समझे नहीं जाते। और जिन्हें नहीं समझा गया, उनके लिए कोई नीति नहीं बनती।”
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