हर पांच साल पर एक दृश्य आम हो जाता है — नेता जनता की चौखट पर हाथ जोड़े, मुस्कुराता चेहरा और एक वादा-पत्र जिसे ‘घोषणापत्र’ कहा जाता है। परंतु यह सिलसिला अब जनता के बीच एक सवाल खड़ा करता है: “क्या नेता सच में जनता की समस्याओं को समझते हैं या सिर्फ वोट लेने आते हैं?”
इस लेख में हम वर्तमान भारतीय लोकतंत्र की उस वास्तविकता का विश्लेषण करेंगे जहाँ जनता की ज़रूरतें और नेताओं के राजनीतिक वादे एक-दूसरे से कैसे टकराते हैं। हम उदाहरणों, स्रोतों, सुझावों, और समाधान के साथ यह समझने की कोशिश करेंगे कि ‘नेता और जनता’ के रिश्ते को कैसे पारदर्शी, जवाबदेह और जनोन्मुखी बनाया जा सकता है।
1: जनता के प्रमुख मुद्दे — ज़मीन से उठती आवाज़ें
1.1 रोजगार की अनिश्चितता:
- CMIE (2024) के अनुसार भारत में बेरोजगारी दर 8% से ऊपर बनी हुई है।
- शिक्षित युवाओं की फौज परीक्षाओं, नियुक्तियों और इंटरव्यू के नाम पर सालों इंतजार करती है।
- उदाहरण: उत्तर प्रदेश के अनुदेशक और शिक्षा मित्र जैसे लाखों संविदा कर्मियों का नियमितीकरण वर्षों से अधर में है।
- अन्य उदाहरण: राजस्थान में REET परीक्षा बार-बार रद्द होने से हज़ारों युवा मानसिक तनाव में हैं।
प्रमुख मांगें:
- भर्तियों की समयबद्ध प्रक्रिया
- संविदा कर्मियों का स्थायीकरण
- निजी कंपनियों में न्यूनतम वेतन का कानूनन पालन
- Skill Development Mission की ज़मीनी पहुँच और गुणवत्ता
1.2 शिक्षा का अव्यवस्थित तंत्र:
- शिक्षा सिर्फ भवनों और पाठ्यक्रमों तक सीमित हो गई है।
- स्कूलों में स्थायी शिक्षकों की भारी कमी।
- डिजिटल डिवाइड के कारण ग्रामीण छात्र पिछड़ रहे हैं।
उदाहरण: बिहार और झारखंड में प्राथमिक स्कूलों में एक शिक्षक पर 80–100 बच्चे! दूसरा उदाहरण: छत्तीसगढ़ के आदिवासी क्षेत्रों में आज भी कई छात्र ईंट भट्टों या खेतों में मजदूरी करने को मजबूर हैं।
जनता की अपेक्षाएँ:
- शिक्षा नीति के क्रियान्वयन की निगरानी
- शिक्षक भर्ती में पारदर्शिता
- स्थानीय भाषा में गुणवत्तापूर्ण डिजिटल कंटेंट
1.3 स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी:
- ग्रामीण भारत में आज भी एक डॉक्टर पर 5,000 से अधिक लोग निर्भर हैं।
- स्वास्थ्य कर्मियों की बड़ी संख्या संविदा या आउटसोर्सिंग पर कार्यरत है।
उदाहरण: कोविड-19 के दौरान आशा कार्यकर्ताओं और नर्सों ने जान जोखिम में डालकर सेवा दी, पर उन्हें उचित मानदेय नहीं मिला। अन्य उदाहरण: बिहार के कटिहार ज़िले में एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में केवल एक डॉक्टर और एक कंपाउंडर पूरे क्षेत्र के लिए कार्यरत हैं।
समाधान:
- टेली-मेडिसिन की सुविधा का विस्तार
- स्वास्थ्य बजट में वृद्धि
- सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को सशक्त करना
1.4 महिला सुरक्षा और समानता:
- NCRB के अनुसार 2023 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 11% वृद्धि हुई।
- घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न के मामलों में शिकायतों का निस्तारण धीमा है।
उदाहरण: उत्तर प्रदेश की हाथरस घटना ने देश को झकझोर दिया, लेकिन न्याय प्रक्रिया में देरी हुई।
अन्य उदाहरण: दिल्ली में महिला हेल्पलाइन 1091 की जवाबदेही को लेकर लगातार शिकायतें सामने आती हैं।
जनता की अपेक्षाएँ:
- महिला हेल्पलाइन की सक्रियता
- पुलिस सुधार और संवेदनशील प्रशिक्षण
- स्थानीय निकायों में महिला भागीदारी को बढ़ावा
1.5 भ्रष्टाचार और लोक सेवा वितरण में बाधाएं:
- आम नागरिक को आज भी राशन, पेंशन, या कृषि बीमा जैसी योजनाओं में भ्रष्टाचार का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण: मध्य प्रदेश के पेंशन घोटाले में कई पंचायतों ने मृत लोगों के नाम पर पेंशन जारी की।
अन्य उदाहरण: उत्तराखंड में मनरेगा भुगतान महीनों तक लंबित रहते हैं।
समाधान:
- डिजिटल ट्रैकिंग सिस्टम
- जनभागीदारी आधारित सोशल ऑडिट
- RTI और लोकपाल संस्थाओं को सशक्त करना
2: राजनीतिक वादे – घोषणा पत्र बनाम जमीनी सच्चाई
2.1 घोषणापत्र – क्या यह कानूनी रूप से बाध्यकारी होना चाहिए?
- हर पार्टी चुनावों से पहले घोषणा करती है – ‘हम ये करेंगे, वो देंगे।’
- पर क्या इन घोषणाओं के पूरा न होने पर कोई जवाबदेही तय होती है?
उदाहरण:
- 2014 में केंद्र सरकार ने हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ देने का वादा किया था।
- 2019 में किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य था। 2024 में भी वही वादा दोहराया गया।
2.2 वोट बैंक और जातिगत राजनीति:
- वादे अक्सर जातिगत या धार्मिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द घूमते हैं।
- मूलभूत मुद्दों से ध्यान हटाकर भावनात्मक अपील की जाती है।
उदाहरण: SC/ST आरक्षण पर राजनीति या मंदिर-मस्जिद विवादों का चुनावी इस्तेमाल।
3: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और समकालीन उदाहरण
3.1 अतीत से सबक:
- जेपी आंदोलन (1974) जनता की भागीदारी का अद्भुत उदाहरण था, जहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश ने सत्ता पलट दी थी।
- अण्णा हज़ारे का आंदोलन (2011) ने जनलोकपाल की मांग को राष्ट्रीय विमर्श में ला दिया।
3.2 समकालीन घटनाएँ:
- किसान आंदोलन (2020-2021): 13 महीने चले इस आंदोलन ने सरकार को तीन कृषि कानून वापस लेने पर मजबूर किया।
- यह दिखाता है कि जब जनता अपने मुद्दे पर अडिग होती है, तो राजनीतिक वादे पीछे हट जाते हैं।
4: पारदर्शिता और जवाबदेही के उपाय
4.1 राजनीतिक साक्षरता अभियान:
- मतदाताओं को सिखाया जाना चाहिए कि घोषणापत्र पढ़ें, पूछें और मूल्यांकन करें।
उपाय:
- स्कूल-कॉलेजों में नागरिक शास्त्र का व्यावहारिक प्रशिक्षण
- NGOs द्वारा पंचायत स्तर पर वोटर अवेयरनेस वर्कशॉप
- ग्रामीण क्षेत्र में मोबाइल कैम्पेन
4.2 घोषणा पत्र ट्रैकर:
- हर निर्वाचन क्षेत्र में पिछली बार किए वादों का ऑडिट होना चाहिए।
उदाहरण वेबसाइट:
- myneta.info
- PRS India
- Factly – वादों और प्रदर्शन की तुलना
4.3 जन-जवाबदेही मंच:
- पंचायत या वार्ड स्तर पर जन प्रतिनिधियों की मासिक जनसुनवाई अनिवार्य होनी चाहिए।
- RTI और सोशल ऑडिट का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए।
5: तकनीक और मीडिया की भूमिका
5.1 सोशल मीडिया – दोधारी तलवार:
- एक ओर यह जनता को जोड़ने का माध्यम है, वहीं दूसरी ओर यह अफवाहों और प्रोपेगेंडा का मंच भी है।
समाधान:
- फैक्ट चेकिंग प्लेटफॉर्म्स को बढ़ावा देना
- मीडिया साक्षरता को बढ़ावा देना
- चुनाव आयोग द्वारा सोशल मीडिया पर वादा ट्रैकर ऐप बनाना
5.2 स्वतंत्र पत्रकारिता का समर्थन:
- लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका निगरानीकर्ता की होती है।
- पेड न्यूज़ और सरकारी विज्ञापन से स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी होगी।
नवाचार:
- डिजिटल स्वतंत्र पोर्टल्स को समर्थन
- RTI आधारित रिपोर्टिंग को मान्यता
निष्कर्ष: नेता वही चाहिए जो जनता की आवाज़ बने
जनता की चौखट पर अगर नेता आएं तो वे खाली वादों के साथ नहीं, जवाबदेही के साथ आएं। अब समय आ गया है कि:
- जनता सिर्फ वोट न दे, सवाल भी पूछे
- घोषणापत्रों को गंभीरता से पढ़ा जाए
- ज़मीनी मुद्दों को चुनावी विमर्श का केंद्र बनाया जाए
नई पहलें:
- “वोट विद विज़न” जैसे अभियानों को बढ़ावा
- युवाओं के लिए “पॉलिटिकल लिट्रेसी बूटकैंप्स”
- हर वार्ड/गांव में घोषणा पत्र की प्रति सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना
लोकतंत्र तभी सशक्त होगा जब जनता मुद्दों पर अडिग होगी, न कि नारों पर-बहक जाएगी।